रोनाल्ड रॉस (13 मई - 16 सितंबर) एक ब्रिटिश नोबेल पुरस्कार विजेता थे। उनका जन्म भारत के उत्तराखण्ड राज्य के कुमांऊँ के अल्मोड़ा जिले के एक गॉंव में हुआ था। उन्हें चिकित्सा तथा मलेरिया के परजीवी प्लास्मोडियम के जीवन चक्र के अन्वेषण के लिये सन् में नोबेल पुरस्कार प्रदान किया गया था।
रोनाल्ड रॉस का जन्म 13 मई, में भारत के उत्तराखण्ड राज्य के कुमांऊँ क्षेत्र के अल्मोड़ा जिले के एक गॉंव में हुआ था। भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम () के दौरान कई अंग्रेजी शासक मैदानी इलाकों से जान बचाने के लिये कुमांऊँ की पहाड़ियों की ओर चले गये थे। इसी कालचक्र के बीच रोनाल्ड रॉस के पिता सर कैम्पबैल क्लेब्रान्ट रॉस अपनी पत्नी मलिदा चारलोटे एल्डरटन के साथ अल्मोड़ा पहुँच गये थे, इस प्रवास के बीच उनकी पत्नी मलिदा चारलोटे एल्डरटन ने यहॉं पर एक शिशु को जन्म दिया जिसका नाम रोनाल्ड रॉस पड़ा। डा० रॉस अपने माता-पिता की दस सन्तानों में सबसे शीर्ष थे।[1][2][3]
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अपने प्रमुख विषय व कर्तव्यों के अलावा डा. रॉस कई अन्य पहलुओं के भी प्रतिभवान थे। उन्हें बचपन से प्रकृति-प्रेम, संगीत, कला, साहित्य, कविताऐं तथा गणित के प्रति भी गहरा लगाव था। सोलह वर्ष की उम्र में उन्होंने ड्राइंग में ऑक्सफोर्ड और कैम्ब्रिज की स्थानीय परीक्षाओं में प्रथम स्थान भी प्राप्त किया था। वे पूरी प्रतिबद्धता पूर्वक संगीत-रचना, कविता और नाटकों के लेखन तथा संगोष्ठियों में समय-समय पर भाग लेते थे। उन्होंने कुछ उपन्यास तथा कविताओं की रचना भी की थी।
रोनाल्ड रॉस ने मच्छरों के जठरांत्र सम्बन्धी क्षेत्र में मलेरिया परजीवी, उनकी खोज तथा मलेरिया मच्छरों द्वारा प्रेषित अन्वेषण किया। उनकी वसूली के लिए नेतृत्व किया और मलेरिया रोग का मुकाबला करने के लिए नींव रखी। पच्चीस साल तक भारतीय चिकित्सा सेवा के दोरान अपनी कर्तव्यपरायणता का बखूबी निर्वहन के पश्चात सेवा से त्यागपत्र दे दिया था। इसके बाद इंगलैंड के ट्रॉपिकल मेडिसिन के लिवरपूल स्कूल के संकाय में शामिल हुए और 10 साल तक उन्होंने संस्थान के ट्रॉपिकल मेडिसिन के प्रोफेसर और अध्यक्ष के रूप में अपने कर्तव्यों का पालन किया। सन् में उनके योगदान तथा उपलब्धियों के सम्मान में रॉस संस्थान और अस्पताल स्थापित किया गया था, जो उष्णकटिबंधीय रोगों के निदान का अस्पताल तथा संस्थान के रूप में स्थापित हुआ था। 16 सितम्बर, को डा० रोनाल्ड रॉस यहीं पर अपनी अन्तिम सॉंस लेने के पश्चात दुनियॉं को जीवन-रक्षक औषधि प्रदान कर हमेशा के लिए विदा हो गये थे।