| श्री जयदयाल गोयन्दका | |
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| जन्म | अधिक ज्येष्ठ कृष्ण षष्ठी, वि. सं. 1942 चूरू, राजस्थान भारत |
| मौत | शनिवार, वैशाख कृष्ण द्वितीया, वि. सं. 2021, दिनांक 17 अप्रैल 1964 गीताभवन, स्वर्गाश्रम (ऋषीकेश) |
| राष्ट्रीयता | भारतीय |
| उपनाम | सेठजी |
| शिक्षा | नाममात्रकी |
| प्रसिद्धि का कारण | आध्यात्मिक प्रेरक, निष्कामभक्तिके प्रतिमूर्ति, गीताप्रेस व गीता-भवन आदिके संस्थापक |
| धर्म | हिन्दू |
जयदयाल गोयन्दका (जन्म : सन् 1885 - निधन : 17 अप्रैल 1965)[1]श्रीमद्भगवद् गीता के अनन्य प्रचारक थे। वे गीताप्रेस, गीता-भवन (ऋषीकेश, स्वर्गाश्रम), ऋषिकुल ब्रह्मचर्याश्रम (चूरू) आदि के संस्थापक थे।
जयदयाल गोयन्दका का जन्म राजस्थान के चुरू में ज्येष्ठ कृष्ण 6, सम्वत् 1942 (सन् 1885) को श्री खूबचन्द्र अग्रवाल के परिवार में हुआ था। बाल्यावस्था में ही इन्हें गीता तथा रामचरितमानस ने प्रभावित किया। वे अपने परिवार के साथ व्यापार के उद्देश्य से बांकुड़ा (पश्चिम बंगाल) चले गए। बंगाल में दुर्भिक्ष पड़ा तो, उन्होंने पीड़ितों की सेवा का आदर्श उपस्थित किया।
उन्होंने गीता तथा अन्य धार्मिक ग्रन्थों का गहन अध्ययन करने के बाद अपना जीवन धर्म-प्रचार में लगाने का संकल्प लिया। इन्होंने कोलकाता में "गोविन्द-भवन" की स्थापना की। वे गीता पर इतना प्रभावी प्रवचन करने लगे थे कि हजारों श्रोता मंत्र-मुग्ध होकर सत्संग का लाभ उठाते थे। "गीता-प्रचार" अभियान के दौरान उन्होंने देखा कि गीता की शुद्ध प्रति मिलनी दूभर है। उन्होंने गीता को शुद्ध भाषा में प्रकाशित करने के उद्देश्य से सन् 1923 में गोरखपुर में गीता प्रेस की स्थापना की। उन्हीं दिनों उनके मौसेरे भाई हनुमान प्रसाद पोद्दार उनके सम्पर्क में आए तथा वे गीता प्रेस के लिए समर्पित हो गए। गीता प्रेस से "कल्याण" पत्रिका का प्रकाशन शुरू हुआ। उनके गीता तथा परमार्थ सम्बंधी लेख प्रकाशित होने लगे। उन्होंने "गीता तत्व विवेचनी" नाम से गीता का भाष्य किया। उनके द्वारा रचित तत्व चिन्तामणि, प्रेम भक्ति प्रकाश, मनुष्य जीवन की सफलता, परम शांति का मार्ग, ज्ञान योग, प्रेम योग का तत्व, परम-साधन, परमार्थ पत्रावली आदि पुस्तकों ने धार्मिक-साहित्य की अभिवृद्धि में अभूतपूर्व योगदान किया है।
उनका निधन 17 अप्रैल 1965 को ऋषिकेश में गंगा तट पर हुआ।
वे अत्यन्त सरल तथा भगवद्विश्वासी थे। उनका कहना था कि यदि मेरे द्वारा किया जाने वाला कार्य अच्छा होगा तो भगवान उसकी सँभाल अपने आप करेंगे। बुरा होगा तो हमें चलाना नहीं है।
सं. 1980 (23 अप्रैल 1923 ई0) को गोरखपुरमें प्रेसकी स्थापना हुई, उसका नाम गीताप्रेस रखा गया। [2]उससे गीताजीके मुद्रण तथा प्रकाशनमें बड़ी सुविधा हो गयी। गीताजीके अनेक प्रकारके छोटे-बड़े संस्करणके अतिरिक्त श्रीसेठजीकी कुछ अन्य पुस्तकोंका भी प्रकाशन होने लगा। गीताप्रेससे शुद्ध मुद्रित गीता, कल्याण, भागवत, महाभारत, रामचरितमानस तथा अन्य धार्मिक ग्रन्थ सस्ते मूल्यपर जनताके पास पहुँचानेका श्रेय श्रीजयदयालजी गोयन्दकाको ही है। गीताप्रेस पुस्तकोंको छापनेका मात्र प्रेस ही नहीं है अपितु भगवान की वाणीसे नि:सृत जीवनोद्धारक गीता इत्यादिकी प्रचारस्थली होनेसे पुण्यस्थलीमें परिवर्तित है। भगवान शास्त्रोंमें स्वयं इसका उद्घोष किये हैं कि जहाँ मेरे नामका स्मरण, प्रचार, भजन-कीर्तन इत्यादि होता है उस स्थानको मैं कभी नहीं त्यागता।
जयदयालजी गोयन्दकाने इस आवासीय विद्यालयकी स्थापना इसी उद्देश्यसे की कि बचपनसे ही अच्छे संस्कार बच्चोंमें पड़ें और वे समाजमें चरित्रवान्, कर्तव्यनिष्ठ, ज्ञानवान् तथा भगवत्प्राप्ति प्रयासी हों। स्थापना वर्ष 1924 ई0 से ही शिक्षा, वस्त्र, शिक्षण सामग्रियाँ इत्यादि आजतक नि:शुल्क हैं। उनसे भोजन खर्च भी नाममात्रका ही लिया जाता है।
जयदयालजी गोयन्दका पवित्रताका बड़ा ध्यान रखते थे। हिंसासे प्राप्त किसी वस्तुका उपयोग नहीं करते थे। आयुर्वेदिक औषधियोंका ही प्रयोग करते और करनेकी सलाह देते थे। शुद्ध आयुर्वेदिक औषधियोंके निर्माणके लिये पहले कोलकातामें पुन: गीताभवनमें व्यवस्था की गयी ताकि हिमालयकी ताजा जड़ी-बूटियों एवं गंगाजलसे निर्मित औषधियाँ जनसामान्यको सुलभ हो सकें।
जयदयाल गोयन्दकाजी गोविन्द भवन कार्यालय के संस्थापक थे। गीताप्रेस, गोविन्द भवन कार्यालय का एक प्रतिष्ठान है। उक्त लिखित बातें उन व्यक्तियों से प्राप्त हुई हैं जो उनके जीवनकाल में साथी रहे थे।
[गीता प्रेस में हुआ एक रहस्य मंथन और गीता जी की टीका तैयार हुई]